जीवन परिचय
तुलसीदास भारतीय साहित्य के भक्ति काल के सबसे प्रमुख कवि और संत थे। उनकी ख्याति मुख्यतः रामचरितमानस की रचना के कारण है, जिसे हिंदी साहित्य की अमर कृति माना जाता है। तुलसीदास ने अपनी कविताओं और भजनों के माध्यम से रामभक्ति की भावना को गहराई तक पहुँचाया और आम जनमानस के बीच रामकथा का प्रचार किया।
जन्म और परिवार
तुलसीदास का जन्म संवत् 1554 (1532 ई.) में उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के राजापुर नामक गाँव में हुआ। उनके पिता का नाम आत्माराम दुबे और माता का नाम हुलसी था। कहा जाता है कि उनका जन्म अशुभ समय में हुआ था, जिससे उनके माता-पिता ने उन्हें छोड़ दिया।
तुलसीदास का जन्म विशेष रूप से अद्वितीय था। लोककथाओं के अनुसार, जन्म के समय उन्होंने “राम” का उच्चारण किया। इस चमत्कारिक घटना के कारण उन्हें बचपन में “रामबोला” नाम दिया गया।
बचपन और शिक्षा
माता-पिता के त्याग के बाद तुलसीदास का पालन-पोषण उनके गुरु नरहरिदास ने किया। नरहरिदास एक महान संत और विद्वान थे, जिन्होंने तुलसीदास को रामकथा और वेदों का ज्ञान दिया। उन्होंने बालक तुलसीदास को संस्कृत, दर्शन और भक्ति के मार्ग पर चलने की शिक्षा दी।
युवावस्था में तुलसीदास काशी गए, जहाँ उन्होंने विद्या की उच्च शिक्षा प्राप्त की। वहाँ उन्होंने संस्कृत के साथ-साथ अन्य धर्मग्रंथों का गहन अध्ययन किया।
विवाह और जीवन का मोड़
युवावस्था में तुलसीदास का विवाह रत्नावली नामक स्त्री से हुआ। रत्नावली अत्यंत धार्मिक और ज्ञानी थीं। विवाह के बाद तुलसीदास अपनी पत्नी के प्रति अत्यधिक आसक्त हो गए।
एक बार जब रत्नावली ने तुलसीदास को अपनी आसक्ति का एहसास दिलाया, तो उन्होंने कहा:
“अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति।
जो होती श्रीराम से, तो मिटती भवभीति।“
रत्नावली के इन शब्दों ने तुलसीदास के जीवन की दिशा बदल दी। उन्होंने सांसारिक मोह छोड़कर रामभक्ति के मार्ग को अपनाया।
रामभक्ति की ओर अग्रसर
तुलसीदास ने राम के प्रति अपने अनन्य प्रेम को भक्ति के रूप में व्यक्त किया। वे तीर्थ यात्रा पर निकल पड़े और अयोध्या, काशी, और चित्रकूट जैसे पवित्र स्थानों पर निवास किया। वहाँ उन्होंने राम कथा के महत्व को समझा और उसे जन-जन तक पहुँचाने का निश्चय किया।
रामचरितमानस का निर्माण
तुलसीदास की सबसे महत्वपूर्ण रचना रामचरितमानस है। यह ग्रंथ सात कांडों में विभाजित है और श्रीराम के जीवन की कथा को सरल और सुंदर भाषा में प्रस्तुत करता है। उन्होंने इसे अवधी भाषा में लिखा, जो उस समय आम जनता की भाषा थी।
रामचरितमानस में तुलसीदास ने न केवल राम के आदर्श चरित्र का वर्णन किया, बल्कि समाज को नैतिकता, धर्म और आध्यात्मिकता का संदेश भी दिया। इसमें श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में चित्रित किया गया है।
अन्य रचनाएँ
तुलसीदास ने कई अन्य महत्वपूर्ण कृतियों की रचना की, जिनमें शामिल हैं:
- विनय पत्रिका: इसमें भक्त का अपने ईश्वर के प्रति समर्पण का वर्णन है।
- हनुमान चालीसा: हनुमानजी की स्तुति में रचित यह काव्य आज भी हर घर में श्रद्धा के साथ गाया जाता है।
- कवितावली: इसमें श्रीराम की जीवन घटनाओं का वर्णन है।
- गीताावली: श्रीराम के प्रति प्रेम और भक्ति से ओत-प्रोत गीतों का संग्रह।
- दोहावली: यह नैतिकता और जीवन के आदर्शों पर आधारित दोहों का संग्रह है।
भक्ति आंदोलन और तुलसीदास
तुलसीदास ने भक्ति आंदोलन में एक नई ऊर्जा का संचार किया। उन्होंने भक्ति को केवल संस्कृत तक सीमित रखने के बजाय क्षेत्रीय भाषाओं में प्रस्तुत किया, जिससे साधारण जनता भी ईश्वर की भक्ति कर सकी। उनके कार्यों ने उत्तर भारत में रामभक्ति को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
तुलसीदास का दर्शन
तुलसीदास का जीवनदर्शन भक्ति, सेवा और समर्पण पर आधारित था। वे मानते थे कि ईश्वर को पाने का सबसे सरल मार्ग भक्ति है। उनका मानना था कि:
“राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौ चाहसि उजियार।“
मृत्यु और विरासत
तुलसीदास ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष काशी में बिताए। उन्होंने काशी के अस्सी घाट पर संवत् 1680 (1623 ईस्वी) में अपने प्राण त्याग दिए। उनकी मृत्यु के बाद भी उनकी रचनाएँ और विचार भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बने रहे।
तुलसीदास की रामभक्ति और साहित्यिक योगदान ने उन्हें भारतीय इतिहास में अमर बना दिया। आज भी रामचरितमानस का पाठ देश के कोने-कोने में श्रद्धा के साथ किया जाता है।
निष्कर्ष
तुलसीदास केवल एक कवि नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति और धर्म के महान प्रवर्तक थे। उन्होंने भक्ति के माध्यम से न केवल साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि समाज को भी एकजुट किया। उनका जीवन और कृतित्व हर युग में प्रेरणा का स्रोत रहेगा।
तुलसीदास के योगदान का महत्व
तुलसीदास ने समाज में प्रेम, सद्भाव और धार्मिकता का संदेश फैलाया। उनके काव्य ने आम जनता को आध्यात्मिकता के करीब लाने का कार्य किया। आज भी तुलसीदास का नाम भारतीय साहित्य, धर्म और संस्कृति में गौरव के साथ लिया जाता है।